Sunday, April 21, 2013

अँधेरा

रात के अँधेरे में एक आहट सुनाई  देती 
एक आहट जो मुझे डरा देती है

अँधेरे से डर तो हमेशा ही लगता था
अँधेरे में जाने से दिल डरता था 

पर अब ये डर थोडा बढ़ गया है 
डर की वजह भी बढ़ गयी है 

मैं सुबह का इंतज़ार करती हूँ 
रात भर सोने से डरती हूँ

सवेरा तो आ जाता है 
पर सुबह नहीं आती है 

अँधेरा चला जाता है 
पर वापिस भी आता  है 

कब आयेगा वो दिन
जब मुझे रात की चिंता न होगी?

कब आयेगा वो सवेरा
जब रात को वो आहट न होगी?

जब किया मैंने ये सवाल
सबने कहा यही रहेगा हाल 

तुम्हे ये सब सेहना ही होगा
ये कड़वा घूँट पीना ही होगा 

नहीं बदलेगा ये कभी 
रहेगा सबकुछ वही का वही 

ये नहीं है सिर्फ मेरा सवाल
फिर क्यों नहीं बदलता हाल?

हैं हम सभी इसके शिकार 
फिर क्यूँ मान जाते हैं सब हार?

डर के जीने से आखिर किसका हुआ भला ?
क्यूँ तू  खुद के लिए अकेले न चला?

तू अकेले कदम  तो बढ़ा 
फिर देख कैसे पूरा देश पीछे होगा खड़ा 

हमें ये अँधेरा मिटाना ही होगा
एक नया सवेरा लाना ही होगा